29 दिसंबर 2019

नये रोग से लड़ने के नाम पर पुराने रोगों के लक्षण उभार गया ये साल

2019 का साल भारत में राजनीतिक विपक्षियों के लिए अहम रहा। वर्ष 2014 से लेकर जो विपक्ष अब तक मुद्दों के नाम पर हांफते रहा उन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम,2019 के विरोध ने जैसे ऑक्सीजन देने का नाम किया हो। अन्ना आंदोलन और निर्भया कांड के वक्त से उपजे जनाक्रोश का फायदा जिस तरह से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और भारत के मौज़ूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उठाया, वैसा फायदा उस दौर का कोई राजनीतिक शख्स उठा नहीं सका। वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने उस समय अंगूर खाने की कोशिश की लेकिन उनके लिए लिए वह अंगूर खट्टा ही निकला। बहुसंख्यक हिंदुओं की आकांक्षाओं को ख़ूब हवा दी गयी जिससे अंतत: ठंडक भारतीय जनता पार्टी के कलेजे को ही मिली। 

वर्ष 2014 के बाद से ख़बर रूपी नलों का मुंह बंद हो गया और अचानक से अफसरों और नेताओं के घोटालों, भ्रष्टाचारों की ख़बरें अख़बारों, टेलीविजन चैनलों, रेडियो से नदारद होने लगी। मीडिया के अधिकांश स्वरूपों पर मुख्य रूप से दो ही राजनीतिक चेहरे का वर्चस्व स्थापित होने लगा। एक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दूसरा भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का। प्रधानमंत्री निरंतर अपने मन की बात करते रहे पर लोगों के मन की बात सुनने की औपचारिकताओं को भी पूरा करते दिखने की छवि वो बनाते देखे गए।


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2014-19 का कार्यकाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पसंदीदा अफसरों को ऊँचे ओहदों पर बिठाने से लेकर शुरू हुआ और नीति आयोग के गठन से लेकर विमुद्रीकरण(सामान्य प्रचलित शब्द 'नोटबंदी'), बालाकोट, उरी हमले, तीन तलाक़ से होता हुआ गरीब सवर्णों को आरक्षण देने जैसे भुनाए जा सकने वाले मुद्दे पर जाकर ठहरा। मुद्दों को अपने पक्ष में भुनाने की हर सम्भावित क्षमता से लैस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टीम ने विपक्ष की तरफ से उठी विरोध की चें-चूं को बड़ी आसानी से धता बता दिया।


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2019 आम चुनाव का साल था। मुद्दों को हवा देकर उभारने और उनको भुनाने की सियासी दौड़ में विपक्ष पस्त दिख रहा था। इस पर कुठाराघाट किया आम चुनाव के नतीजों ने जिसमें भारतीय जनता पार्टी 303 सीटें जीते कर अपने दम पर बहुमत पार कर गई। इन घोषित नतीजों ने नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल को पाँच सालों का समय-विस्तार दिया। वहीं, विपक्ष के लिए सड़कों का रास्ता ही खुला छोड़ा। विपक्षी 2014 से पहले से ही जिन्हें रोग बताता रहा उसका उपचार उनके पास भी नहीं था। उनमें से अधिकांश अपनी ही करनी के फल से बचने की जुगत कर रहे थे। जाने किस डर से विपक्षियों ने मौन धारण किया और बड़ी ही चतुराई से शिथिलता बरतते रहे।


#CAA_protest

इसके बाद जम्मू-कश्मीर में नासूड़ बन चुके धारा 370 को नियोजित और बलपूर्वक हटाने के फैसले और उसके क्रियान्वयन ने थोड़ी हलचल पैदा की पर उसका ज्यादा बड़ा लाभ विपक्षियों को नहीं मिला और वह केवल संसद के अंदर ही मुद्दा बना रहा। इसके तुरंत बाद अयोध्या के मंदिर-मस्जिद भूमि विवाद में फैसला आया जिसका लाभ भी भारतीय जनता पार्टी को मिलता दिखा। इसका दूसरा असर ओवैसी के धीरे-धीरे किंतु बढ़ रहे मुस्लिम वोटबैंक के रूप में सामने आया।  

हालंकि, 2019 का दिसम्बर विपक्षियों के लिए खासा महत्तवपूर्ण रहा। नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के विरोध में सड़कें विपक्षी नेताओं की अगुआई से भरी दिखाई दी। अलाव की जगह जलते टायरों, गाड़ियों, पत्थरों, पोस्टरों और एक उन्मादी भीड़ ने ले ली। प्रदर्शन केवल इसकी अनुमति के लिए प्रस्तुत किये गए आवेदनों में ही शांतिपूर्ण रहा। अख़बार और टेलीविजन चैनलों पर टूटे हाथ, फूटे सिर, खून से सने कपड़े ही दिखाई देने लगे। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में निकली नागरिकों की रैली को मुस्लिम-विरोधी कानून का शक्ल दे दिया गया। यूँ कह लीजिए कि जाते-जाते साल 2019 नये रोग से लड़ने के नाम पर पुराने रोगों के उन्मादी लक्षणों को बड़ी मज़बूती से उभार गया। 


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