24 नवंबर 2016

लिफ्ट में उनसे आगे चढ़ने से नाराज़ मोदी साहब ने किया अधिकारी का ट्रांसफर

सुना है, मोदी साहब अपने अधीनस्थ अधिकारी से नाराज़ हो गये. नाराज़गी की वजह भी यह रही कि एक अधीनस्थ अधिकारी उनके सामने उनसे पहले लिफ्ट पर चढ़ गये. मोदी साहब ने उस अधिकारी से लिफ्ट से उतरने को कहा. वह नहीं उतरा. मोदी साहब ने अपने पद का हवाला दिया. अधीनस्थ अधिकारी फिर भी नहीं उतरा और अपने जल्दी लिफ्ट पर चढ़ने के कारण का भी ज़िक्र किया. जल्दी चढ़ने के कारण का खुलासा करते हुए उन्होंने यह भी कह दिया कि लिफ्ट सबके लिये है. 

अधीनस्थ अधिकारी की दलीलों और कारण ने मोदी साहब के अहं को लिफ्ट की ऊँचाईयों से ऊपर पहुँचा दिया. अपने अहं की तुष्टि के लिये मोदी साहब ने तत्काल कार्रवाई करते हुए अधीनस्थ अधिकारी का स्थानांतरण कर दिया. बेवजह स्थानांतरित किये गये अधिकारी को मोदी साहब की तानाशाही बुरी लगी और उसने पूरी घटना की जानकारी अपने एसोसियेशन को दी. 

एसोसियेशन हरक़त में आया और मोदी साहब से फैसला वापस लेने को कहा. मोदी साहब टस से मस न हुए. होते भी कैसे! माना जाता है कि सत्तासीनों के कर्ता-धर्ता प्रधान सेवक का अधिकारी के रूप में बड़े ओहदे पर बैठे इस मोदी पर हाथ है. सत्ता में आते ही इस मोदी साहब को दिल्ली में केंद्रीय सरकार के एक महत्तवपूर्ण विभाग में लाया गया. दोनों मोदी का रिश्ता अहमदाबाद से रहा है. 

स्थिति आश्चर्यजनक बिल्कुल भी नहीं है. लोकशाही में बड़े ओहदे वालों के लिये अधीनस्थ कर्मचारियों के काम से ज्यादा मायने उनका अपना अहं और उसकी निरंतर तुष्टि रखता है. यह एक रिवाज़ है. रिवाज़ तोड़ने पर प्रशासनिक आधारों पर तत्काल प्रभाव से स्थानांतरण या अधीनस्थों के रिपोर्ट में नकारात्मक प्रविष्टियाँ की जाती है ताकि मौद्रिक बढ़ोत्तरी और प्रोन्नतियों से उन्हें वंचित रखा जा सके. 

17 नवंबर 2016

कतारों के देश में कतारों से कतराने वाले खड़े हैं कतारों में

बहुत कुछ चलता रहा, चल रहा है. रोजमर्रा की चीजों से निपटते-निपटते इन पर ध्यान से सोचने का मौक़ा ही नहीं मिलता. माल्या का आसानी से भाग जाना विवाद का विषय बना पर थोड़ी दिनों में आम लोगों के होंठों पर जियो ने दस्तक दे दी. मुफ़्त की सिम लोगों को करीब 7-8 सालों से लुभाती रही है. शुरूआती वर्षों में लोग मुफ़्त में मिली सिम में किस्तों में मिले टॉकटाइम में व्यस्त रहे. टॉकटाइम कम से कम तीन महीने तक सिम चलने की गारंटी होती थी. फिर टूटी सिम कहीं कूड़ेदानों, सड़कों पर पड़े कूड़े के साथ अपनी बेबसी भरी आपबीती कहती नजर आती और लोग नये सिम की चाहत में मोबाइल फोन के दुकानों पर तलवे टिकाये रहते.

कुछ साल गुजर गये. लोगों को उबासी आने लगी थी. फिर कर-कर खोदी जनता को दिखाये सपनों के सहारे उस देश के वास्तविक कर्ता-धर्ता बन गये जिसका मन परम्परागत राजनीति से नीरस हो चुका था. शासन के एक-दो सालों में योजनायें ऐसे आती रही मानो जुलाई-अगस्त में होने वाली किशनगंज की बारिश हो! लोगों को एक योजना को समझने, उसके गुण-दोषों पर चर्चा का जब तक मौक़ा मिलता तब तक दूसरी योजना की घोषणा हो जाती. आंकड़े पर आंकड़े लोगों के कानों में पड़ने लगे और लोग बेपरवाह अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में व्यस्त होने लगे. 

समय अपनी चाल चलता रहा और वो अपनी. राजनीति चालें चलने को ही तो कहते हैं. समय करवट लेता  उससे पहले ही देश भर में धमाका हुआ. धमाका इतना शक्तिशाली रहा कि लोग कतारों में आ गये. उधर बाजार में जियो की धमक धमाकेदार रही. मुफ़्त का सिम, मुफ़्त का टॉकटाइम, मुफ़्त का डेटा, और तो और पहचान सम्बन्धी दस्तावेज़ भी मुफ़्त. एक नंबर आइडिया रहा, एक नंबर. दुकानों पर कतारों में खड़े रहने वाले दोबारा खड़े रहने लोग कतारों में. 



वक़्त बीतता रहा और जियो के लिये कतारें कम होने लगी. अस्पतालों, बसों, मैट्रो, रेलगाड़ियों में कतारें जस की तस थी. हालांकि, ये कतारें एक-सी नीरस और पुरानी हो चुकी थी. लोगों को मज़ा नहीं आ रहा था. तभी दूसरा धमाका हुआ और पाँच सौ, हजार के नोट आनन-फानन में वर्तमान से अतीत में बदले जाने का आदेश दे दिया गया. फिर कताारें बनायी जाने लगी. आभूषण दुकानों के आगे, ए टी एम के आगे, मैट्रो की टिकट खिड़की के आगे. क्या सुबह, क्या दोपहर, क्या शाम और क्या रात! जिधर देखो उधर कतारें ही कतारें दिखने लगी. रेल, बस, मैट्रो की भीड़ बैंकों में घुसने लगी. 

माल्या का आसानी से भाग जाना, जियो का मुफ़्त धमाका, रघुराम राजन की तकरार, सितम्बर में उरजित पटेल का रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गर्वनर बनना और साहब की छह महीने की तैयारी के बाद 500 और 1000 के नोटों का प्रचलन बंद कर दिया जाना मात्र संयोग नहीं है. बहुत कुछ है जो अगले दशकों में किताबों के रूप में प्रकाशित होंगी. साहब की छह महीने की तैयारी बढ़ती कतारों, खराब एटीएम के आगे उनकी बात को झूठा साबित करने पर तुली है. तब तक छह महीने की तैयारी और करीब ढ़ाई महीने पहले गर्वनर बने पटेल साहब के हस्ताक्षर से प्रचलन में आये नोटों के लिये कतारें बनाते रहिये.

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17 जुलाई 2016

बुनकरों के एक विद्रोह की रिपोर्टिंग और समकालीन राष्ट्रवाद

यह ब्लॉग पत्रकार विल्हेम वोल्फ की एक रिपोर्टिंग का संशोधित अनुवाद है. 

यह एक ऐतिहासिक लेकिन समकालीन सन्दर्भों से जोड़ कर देखी जा सकने वली घटना है. 170 साल पुरानी यह घटना हमें हमारे यथार्थ की ओर खींचने में आज भी सक्षम है. यही इस घटना की यूएसपी है. दरअसल, यह घटना बाद में बनी. घटना के रूप में पहचाने जाने से पहले यह एक विद्रोह कहलायी. एक ऐसा विद्रोह, जिसके होने का समय लगभग वही रहा जब राजतंत्र जैसी सड़ चुकी व्यवस्था को खत्म करने से उपजे हालातों में व्यवस्था चलाने के लिये राष्ट्र नाम के कीड़े की उत्पत्ति हुई. संयोग देखिये, जिन देशों में यह कीड़ा पहले पनपा उनमें से एक को आपातकाल की अवधि बढ़ानी पड़ रही है और दूसरे 'राष्ट्र' की अर्थव्यवस्था पिछले साल पर 'राष्ट्रों' की कृपा की राह देख रही थी. 

खैर, इस विद्रोह के केंद्र में बुनकर थे. 1845 में सिलेसिया में बुनकरों ने अपनी परेशानियों से तंग आकर ठेकेदारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया था. यह विद्रोह उन ठेकेदारों तक ही सीमित रहा जो इन बुनकरों को कच्चा माल देते और बदले में निर्मिल माल लेते थे. कच्चे माल को 'निर्मित माल' बनाने के बदले जो पैसे बुनकरों को दिये जाते वो काफी कम होते थे. 

18,000 की आबादी वाले उस गाँव में सूती कपड़ा बनाने का व्यवसाय व्यापक, लेकिन श्रमिकों की हालत खस्ता थी. काम की तुलना में श्रमिकों की भीड़ ज्यादा थी. इसका अनुचित लाभ ठेकेदार उठाते थे. इन अनुचित लाभों में से एक निर्मित माल के मूल्यों को कम करते रहना था. 


Film:The weaver

4 जून की दोपहरी बुनकरों की एक बड़ी संख्या अपने घरों से निकल दो कतारों में चलते हुए ठेकेदार की कोठी तक पहुँची. उनके लबों पर ज्यादा मज़दूरी की माँगें थी. हालांकि, उनमें से बहुतेरों का मन tit for tat के सागर में गोते लगा रहा था. ठेकेदार का पल़ड़ा अभी भारी था. इसलिये बुनकरों को धमकियाँ सुनने को मिल रही थी. बीच-बीच में स्थिति की गम्भीरता को भाँपते हुए ठेकेदार सिर्फ घृणा के भावों का ही अस्त्र के रूप में प्रयोग कर लेता.  

पर, वह दिन फैसले का था. सो, बुनकरों की भीड़ में से कुछ जबरन ठेकेदार के घर में घुस गयी. पल भर में ही घर में लगे फर्नीचर और खिड़कियाँ धूल चाटने को विवश थी. बुनकरों का एक समूह भंडारघर में घुस गया और कपड़ों के स्वामित्व में अकस्मात परिवर्तन हो गया.  पर, घर का स्वामी अपने परिवार के साथ दूसरे गाँव भाग गया. बदकिस्मती, कि उसकी आप-बीती उससे पहले वहाँ पहुँच चुकी थी. इसलिये उस गाँव में उसे शरण नहीं मिला. 

हालांकि, 24 घंटों के भीतर सेना की सहायता से वह वापस अपने गाँव लौटा. इसके बाद वहाँ जो टकराव हुआ उसमें 11 बुनकरों को गोली मार दी गयी. 

इस ब्लॉग में टाइप की हुई घटना को पत्रकार विल्हेम वोल्फ़ ने कवर किया था. जरा सोचिये, आज के भारत में किसी पत्रकार ने इसी निर्भीकता के साथ इस विद्रोह की घटना को कवर किया होता तो शायद छत्तीसगढ़ में उसे नक्सली करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता, बिहार में गोली मार दी जाती, यूपी में उसे जला दिया जाता, पंजाब में उस पत्रकार की स्टोरी को झुठलाने के लिये एक चमचमाती गुणगानकारी विज्ञापन प्रसारित करवा दी जाती. प्रधानमंत्री स्टार्ट-अप से भविष्य के विजय माल्या पैदा करने में लगे होते, पूर्व सूचना-प्रसारण मंत्री रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गर्वनर पर दबाव बना रहे होते. शायद, पत्रकार को देशद्रोही करार दे दिया जाता और न्यायालय परिसर में कीड़ा-पालक उस पर लात-घूँसों की बरसात कर रहे होते. बेशक, न्यायालय कई घंटों तक आँखों पर पट्टी और मुँह में तराजू ठूँसे रहता. 

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22 जून 2016

पूंजीless वकीलों की तो छुट्टी समझो मामू! आ गिया है पहला रोबोटिक वकील

भेजा ठनका क्या मामू? क्या है ना, कि अब केजरीवाल का झूठा सर्टिफिकेट टाइप मंत्री लोगों का उम्मीद खल्लास. वकीलों के आजू-बाजू मुंशी टाइप लोगों का भी रोजगार खल्लास. क्योंकि, पहली बार आ गया है कानून-बाजार में रोबोटिक वकील. I शपथ! नहीं पढ़ा कहीं, इधरिच पढ़ ले मामू. क्या मामू, खाली-पीली भेजे पर वज़न नहीं डालने का. अपुन टाइप कर रिया है न. क्या है ना, अपुन को भी ज्यादा इंट्रो-विंट्रो के लफड़े में फँसने का नहीं माँगता. 

अमेरिका के एक लॉ फर्म ने मई 16,2016 को अपने कानूनी कार्यों में सहायता के लिये एक रोबोट को किराये या समझ लें पारिश्रमिक पर रखा है. यह रोबोट इस फर्म में कानूनी कार्यों को निपटाने में विभिन्न दलों की सहायता करेगा. इसके कार्यों में प्रयोक्ताओं को उन नवीन अदालती निर्णयों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराना शामिल है जिससे मुकदमें प्रभावित हो सकते हैं. इस रोबोटिक वकील का काम उद्धरण मुहैया कराना भी है जो मुकदमों के दौरान काम आते हैं.



सेल्फ लर्निंग एलगोरिदमिक टूल के रूप में विकसित किये गये इस रोबोटिक वकील का नाम रॉस (ROSS) रखा गया है. रॉस शोध कार्यों में दक्ष है और पूछे गये सवाल के मुताबिक यह युक्तियुक्त साक्ष्य आधारित त्वरित जवाब दे सकता है. 

मतलब ये हुआ कि जितना टाइम भाई लोग उससे सवाल पूछने में वेस्ट करेगा उससे ज्यादा स्पीड से रॉस जवाब दे डालेगा. समझा क्या मामू! अब रोकड़ा वाला वकील सब के सिर से मुंशी टाइप लोगों को पारिश्रमिक पर रखने का धंधा चौपट. क्या? नहीं समझा. ऐड़ा है क्या मामू? 

जौन लॉ फर्म रॉस को किराये पर रखे हैं उ मुफत में तो रखे नहीं होंगे. इसके लिये baker & hostetler नामक लॉ फर्म ने आईबीएम को कीमत चुकायी है. आईबीएम ने अपने कम्प्युटिंग सिस्टम से रॉस को विकसित किया है. इससे पहले रिटेल स्टोर्स के लिये Humanoid robot निर्माण के वास्ते आईबीएम ने सॉफ्टबैंक के साथ साझेदारी की थी. 

सच कहता हूँ, जब कुछ भी पहली-पहली बार होता है न, तो......मामू जैसी छवि बनाने की कोशिश भी बहुत होती है. रॉस को ही देख लो, गूगल पे world's First artificial intelligent lawyer करोगे तो रॉस ही रॉस प्रकट होंगे, श्रीकृष्ण की तरह, जैसे गीता के उपदेश का संशोधित संस्करण दे रहे हों कि,"जब-जब पूंजीधारियों के सिर पर काम का बोझ बहुत बढ़ जायेगा तब-तब उन्न्त प्रौद्योगिकी सघन पू्ंजी के सहयोग से नवीन कृत्रिम मशीनें विकसित करेगी."


पर क्लाइंट का क्या. उसकों तो पेमेंट करना होगा ना मामू. इतना खर्चा कियेला पूंजीपति रोबोटिक वकील खरीदने के वास्ते. अपुन क्या बोलता है, ये मुंशिच टाइप, कम पूंजी वाले वकीलों को एक झप्पी दे दो न, मामू!

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17 अप्रैल 2016

मैं उसे चूमना चाहता हूँ जिसने 1 बटा 2 की

... अवधारणा को सबसे पहले समझा और दुनिया को इसके बारे में बताया. हरे कृष्णा! हरे कृष्णा! गजब की चीज है ये 1/2. गणित से शुरू होकर कब 1/2 लोगों के जीवन में शामिल हो जाता है, ये उन्हें भी पता नहीं चल पाता. 1/2 होते ही व्यक्ति इस लोक का नहीं रह पाता. इसकी महत्ता का अंदाजा तो उस अफ़वाह से ही लगाया जा सकता है जिसके अनुसार गिलास में 1/2 भरा समझने वालों की सोच को सकारात्मक और 1/2 खाली समझने वालों की सोच को नकारात्मक समझ उच्च पदों वाली नौकरियाँ दी या नहीं दी जाती है.

 देखिये ना, 1/2 का लोगों की जिंदगी पर कितना अधिक आधिपत्य है. हरिय़ाणा में जाटों के आरक्षण आंदोलन की आड़ में फुल माइंड वालों ने अपने आप को 1/2 साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. फुल माइंड वालों ने अपने 1/2 होने का प्रमाण सरकारी बसों को जलाकर, कार, मॉल को जलाकर तो दिया ही, लड़कियों-औरतों को अपनी हवस का शिकार बनाने से हिचके नहीं. अब सोचिये, इतने पुख़्ता प्रमाण के साथ स्वयं को कोई कुछ साबित करता है क्या? 

संविधान और उसकी रक्षा के लिये जिम्मेदार लोग भी सार्वजनिक रूप से 1/2 का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, दावे जितने भी लिखित और मौखिक कर लिये जाएं! गुपचुप तरीके से तो केवल सेटलमेंट ही होता है. नुकसान जिसका हुआ उसका, सरकार का क्या!. संवैधानिक चाबुक निहत्थे और अपेक्षाकृत अत्यधिक कमजोर पर ही चलती है. मजाल कि यह 1/2 लट्ठधारियों पर चल जाये! लट्ठ से लट्ठ बजाने में देर नहीं लगती. 

तो. तो क्या? फुल माइंड वालों को संविधान का आदर करना चाहिये और अगर इससे उपजे किसी खामी को उजागर करने की बात किसी विश्वविद्यालय में उठे तो राष्टद्रोही होने के अपने खतरे हैं. वैसे राष्ट्रद्रोह वह नहीं है जो हरियाणा में हुआ. संविधान के रक्षकों के लिये यह मात्र सनकपन है. राष्ट्रदोह यह भी नहीं है कि किसी पैसेवाले के बेटे की लापरवाही से सड़कों पर मरे लोगों को इंसाफ दिलाने के बजाय जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी उस कृत्य को मामूली धाराओं की माला पहनाये. ना, ये राष्ट्रद्रोह नहीं है!

ये 1/2 हमारे आस-पास बहुतेरे मिल जाएँगे. पड़ोस में, सड़कों पर, बसों में, रेलगाड़ियों में. बस संसद में केवल फुल माइंड वाले ही मिलते हैं. अब जब आप अपने घरों में, पास-पड़ोस में ऐसे 1/2 खोजने लगेंगे तो आपको शायद अचरज न हो. हालांकि, अब ट्रेंड तेजी से बदल रहा है. एक नया वर्जन जीरो बटा सन्नाटा या नील बटा सन्नाटा भी पैर पसारने को बेताब है.

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07 फ़रवरी 2016

इस मंदिर में भ्रष्ट न्यायाधीशों, अधिकारियों और नेताओं का प्रवेश वर्जित है

विचार के धाराओं में बँटने का आधार असहमतियाँ हैं। असहमतियाँ विचार-धाराओं का ध्रुवीकरण भी करती है। असहमतियों का होना जरूरी है क्योंकि यही गतिशील समाज का द्योतक है। इसके अभाव में समाज जड़ हो जायेगा। विचार एक-दूसरे से विमर्श के सहारे टकराती है। समाज की हर इकाई धाराओं का अपनी परिस्थितियों के अनुकूल मू्ल्यांकन करती है। समाज की कुछ इकाईयों का अधिकांश हिस्सा अक्सर सम्पूर्ण वेग से बहती धारा के साथ बहना ही पसंद करता है। उसका मकसद इसके जरिये अपनी गति को धारा की गति के बराबर अथवा समकक्ष लाना होता है।

कुछ ऐसे भीहोते हैं जो धारा के उर्ध्व चलते हैं। इसमें खतरे अधिक होते हैं। फायदे कम लेकिन चिरस्थायी होते हैं। जब विचार की कोई धारा लम्बे समय तक अस्तित्व में रहती है तो उससे कई विसंगतियाँ पैदा होती है। ये विसंगतियाँ कालांतर में अपने ही अस्तित्व के लिये खतरा बनती है। अक्सर उस विचार के धारा की गति कुंद होने का कारण भी यही होती है।

नागरिकों के साथ यही होता है। राज और तंत्र ऐसे ही चलते हैं। लम्बे समय तक रेंग-रेंग कर चलने वाले तंत्र की विसंगतियों का ही परिणाम भ्रष्टाचार है। तंत्र में शिथिलता का मुख्य कारण उसकी अकर्मण्यता है। यह रोष को जन्म देता है जिसके उत्प्रेरक वो लोग होते हैं जो गलत दिशा में अनुप्रवाह चलना पसंद नहीं करते। आज एक ऐसे ही उत्प्रेरक की लोक मीडिया पर प्रचलित कहानी की एक झलकी इस ब्लॉग में टाइप की जा रही है।


भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर

यह कहानी है एक ऐसे मंदिर की जिसका निर्माण कराने वाला भ्रष्ट तंत्र के आगे घुटने नहीं टेकता। वह तंत्र से जूझता है। तंत्र को तंत्र से ही काटने की कोशिश करता है। इसी कोशिश में वह एक मंदिर बनवाता है जिसमें भ्रष्ट न्यायाधीशों, अधिकारियों और नेताओं का प्रवेश तक वर्जित है। उत्तर प्रदेश में कानपुर विश्वविद्यालय के पीछे बने इस मंदिर  का नाम भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर है। निर्माण के उद्देश्यों को शुरू से ही अमल में लाया गया और इसके लोकार्पण के लिये प्रचलित तरीके को नहीं अपनाया गया। इस मंदिर का लोकार्पण पवन राणे बाल्मीकि नामक विशिष्ट योग्यता रखने वाले व्यक्ति से कराया गया। 

निजी जमीन पर बने इस मंदिर में शनि की प्रतिमा स्थापित की गयी है। शनि-मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे का तर्क यह है कि इनकी कुदृष्टि भ्रष्ट न्यायाधीशों, नेताओं और अधिकारियों पर पड़ी रहे। लोक मीडिया पर उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर इस मंदिर में ऐसे लोगों की तस्वीरें इस तरीके से टंगी हैं कि शनि देव की सीधी नजर इन पर पड़े। इसका मकसद बस यही है कि उच्च पदों पर बैठे लोग भ्रष्ट आचरणों से बचें और जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझें।

भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर में आम नागरिकों के प्रवेश पर कोई रोक-टोक नहीं है। हालांकि, ऊपर से नीचे बह रहे भ्रष्टाचार के प्रवाह में छक कर नहाये लोगों के लिये इसमें प्रवेश वर्जित कर दिया गया है। इस मंदिर की दीवारों पर टंगे सूचना-पट्ट  में वर्णित शर्त के अनुसार बीस वर्ष के बाद तंत्र की स्थिति में सुधार के बाद इन वर्गों के लोगों को भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर में प्रवेश मिल सकता है।




भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर में मूर्तियों के ऊपर तेल चढ़ाना,प्रसाद चढ़ाना और घंटा बजाना निषिद्ध है। हालांकि, यहाँ बेरोकटोक लौंग, इलायची और काली मिर्च का चढ़ावा चढ़ाया जा सकता है। इसके साथ मिट्टी के दीये जलाये जा सकते हैं। भ्रष्ट तंत्र विनाशक शनि मंदिर में कुछ और वर्ग के लोगों का प्रवेश वर्जित है जिनमें शराबी हैं। इस मंदिर परिसर में कुछ कार्यों को घृणित कार्यों की सूची में रखा गया है जिनमें थूकना, खैनी चबाना आदि। इस ंमंदिर का निर्माण आरटीआई कार्यकर्ता रॉबी शर्मा ने कराया है। तो अगली बार अगर आप तीर्थों की यात्रा पर निकलें तो एक दर्शन इस मंदिर के भी कर लें। 

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29 जनवरी 2016

नवजात बच्चों पर है सबसे अधिक खतरा इस विषाणु का

ब्राज़ील और उसके साथ कुछ अमेरिकी देश एक नये तरह के स्वास्थ्य संकट से गुजर रहे हैं। वह स्वास्थ्य संकट जिसके जड़ में फिर एक बार विषाणु हैं। इन विषाणुओं का प्रभाव मच्छर एक इंसान से दूसरे इंसान में फैला रहे हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है। इस बीमारी का सबसे ज्यादा प्रभाव वहाँ नवज़ात बच्चों पर हो रहा है जो छोटे सिर के साथ पैदा हो रहे हैं।

यह बीमारी उन संक्रमित मच्छरों के काटने से फैलती है जो पीला बुख़ार, डेंगी और चिकुनगुनिया जैसे विषाणुओं को फैलाने की जिम्मेदारी पूरी वफादारी और तन्मयता से निभाती है। यह बीमारी संक्रमित माँ से नवज़ात में गर्भ के दौरान फैलती है। इतना ही नहीं यह ब्लड ट्रांसफ्युजन और यौन सम्बन्धों से फैलती है। यह बात अलग है कि अब तक यौन सम्बन्धों से इस विषाणु के प्रसार का केवल एक ही मामला सामने आया है।




इस अनजान बीमारी ने वहाँ भय का ऐसा परिवेश तैयार किया है कि कई सरकार ने महिलाओं को बच्चे पैदा नहीं करने की सलाह दी है। इसे लेकर ब्राज़ील की सरकार को चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। आलोचना इसलिये क्योंकि ब्राज़ील सरकार अब तक इसकी कोई कारगर औषधि खोजने में नाकामयाब रही है।

ब्राज़ील की सरकार का क्या कहे! विश्व के तमाम स्वास्थ्य संगठन अब तक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाये हैं। कई वैज्ञानिकों का तो यह मानना है कि इस बीमारी की रोकथाम के लिये दवाई बनने में करीब दो साल लग जायेंगे और उसे आम नागरिकों तक पहुँचाने में जो समय लगेगा सो अलग! ब्राज़ील की सरकार पर दबाव का आलम यह है कि वह अपने लोगों को किसी भी तरह मच्छरों के डंक से बचने की सलाह जारी कर रही है।




ज़िका विषाणु गर्भवती महिलाओं के शरीर में प्रवेश कर जाता है जो माइक्रोफैली की समस्या को जन्म देता है। माइक्रोफैली असल में न्यूरोलॉजिकल समस्या है जिसमें बच्चे का सिर छोटा रह जाता है और पूरी तरह से उसका विकास भी नहीं होता है। कभी कभी ऐसे मामलों में बच्चे की मौत भी हो जाती है। इसके साथ ही बच्चा दिखने में अजीब लगता है। जिका वायरस अमेरिका सहित कई लैटिन अमेरिकी देशों में लोगों के लिए खतरा बना हुआ है। इसके साथ ही इसके अन्य देशों में फैलने के खतरे को देखते हुए कई देशों की सरकारों ने अपने यहां जिका वायरस का अलर्ट जारी कर दिया है।

इस विषाणु को ज़िका नाम दिया गया है जिसके कारण बुख़ार आता है। इस विषाणु का नाम युगांडा के ज़िका जंगल के नाम पर रखा गया है जहाँ उसकी पहचान बंदरों में की गयी थी। ब्राज़ील के सरकारी अधिकारियों ने इस वर्ष इसके करीब 2,782 मामले दर्ज़ किये हैं जो वर्ष 2014 में 147 और उससे पहले 167 थे। इसके प्रभाव के कारण 40 नवज़ातों की मौत हो चुकी है। ब्राज़ील के कुछ शोधकर्ताओं ने चेतावनी जारी की है कि आने वाले माहों में यह कई गुना बढ़ सकती है। इससे प्रकोप से बच जाने वाले बच्चे ताउम्र मस्तिष्क बुद्धि सम्बन्धी दोषों से जूझते रहेंगे।




मच्छरों के काटने के तीन से बारह दिनों के बीच चार में से तीन व्यक्तियों में तेज बुख़ार, रैश, सिर दर्द और जोड़ों में दर्द के लक्षण देखे गये हैं। इसकी रोकथाम के लिये अब तक दवाई नहीं बनी और न ही इसके उपचार का कोई सटीक तरीका सामने आ सका है। अमेरिका की सेंटर्स फॉर डिज़ीज कंट्रोल के अनुसार समूचे विश्व में इस तरह के मच्छरों के पाये जाने के कारण इस विषाणु का प्रसार दूसरे देशों में भी हो सकता है।


तेजी से फैल रहे इस बीमारी के खतरों को देखते हुए सरकार सतर्क हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस दिशा में पहल शुरू कर दी है। गुरुवार को हुई बैठक में इसके महानिदेशक मार्गेट चेन ने कहा कि ज़िका भयावह रूप ले रहा है और इसका प्रसार तेजी से हो रहा है। भारत में भी स्वास्थ्य मंत्रालय ने ज़िका विषाणु की स्थिति पर नजर रखने के लिए एक संयुक्त निगरानी समिति बनायी है। इसके जरिये विषाणु संक्रमित देशों से आने वाले लोगों पर नजर रखी जाएगी।

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