14 मार्च 2014

अण्णा के बहाने

गांधी बनने की राह पर निकले समाजसेवी अण्णा हजारे मंदिर की उस घंटी की तरह है जिसे कोई भी आ कर बजा सकता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उनका आंदोलन चरम पर था तो उन्हें दूसरा गांधी बनाने की पुरजोर कोशिश हुई थी। पर, दो साल बीतते-बीतते वो बेलगोबना बन चुके हैं। हालिया उदाहरण देखिए, बुधवार को ममता की रैली में ना जाने का बहाना यह था कि अण्णा बीमार हैं। बेशक यह उनके निजी सचिव द्वारा कहा गया हो पर इस बात में दो राय नहीं कि इसमें उनकी भी हामी थी। और अगर नहीं थी तो उनके अपने व्यक्तित्व पर सवाल उठना स्वभाविक और पूर्णतया तर्कसंगत हैं।


कल उनका बयान आया कि ''बुधवार को रामलीला  मैदान में 4000 लोग भी नहीं पहुँचे थे। इसलिए वे रैली में नहीं गए।'' इस बयान पर जरा सा ध्यान देने से यह समझ में आता हैं कि अण्णा वैसी भीड़ में जाना पसंद करते हैं जो कम से कम चार हजार से तो अधिक हो! इसके भी अलग-अलग मायने हैं। और इससे उनके नीयत पर शक होना भी गैर-वाज़िब नहीं हैं।


एक बुजुर्ग समाजसेवी को अब जाकर एहसास हुआ कि उनके साथ धोखा हुआ हैं। यह तो साधारण सी बात है कि उम्र के इस पड़ाव पर आदमी पारखी हो जाता है और उसके अंदर यह क्षमता तो आ ही जाती है कि वह किसी के चाल-ढाल से उसकी नीयत भाँप सकता हैं। अच्छे नेतृत्व का यह एक गुण होता है कि वह सामने वाले के हाव-भाव को सूँघकर अपनी योजना बनाता है और उसका क्रियान्वयन इस तरह से करता है कि सफलता उसकी होने को मजबूर हो जाती हैं। इस तरह से अण्णा एक अच्छे नेतृत्वकर्ता तो नहीं हैं।


सोचने वाली बात यह है कि हमारे समाज में ऐसी स्थितियाँ आती क्यूँ हैं?


हमारे समाज में और देश में किसी के एक अच्छे काम के कारण उसे भगवान बना कर पूजने की परंपरा  पुरानी है। परवाह नहीं कि उसका संपूर्ण व्यक्तित्व कैसा हैं। यह परंपरा दीमक की तरह हमारे मन में बसी हुई हैं। यह एक मानक है यह समझने  का कि इक्कीसवीं शताब्दी में भी हमारी चाल भेड़ियों सी है। जिस तरफ हाँक लो!


किसी को आदर्श  मानना एक चीज़ है और किसी को भगवान बना लेना दूसरी! होना तो यह चाहिए कि हर व्यक्ति के पास जीवन जीने का अपना अनूठा दर्शन हो। और यह भी कि वो दुर्भावना मुक्त हो। बेशक किसी के अच्छे गुणों से सीखना चाहिए । लेकिन, किसी के कुछ गुणों के कारण उसे सिर पर चढा लेना या सबसे ऊपर समझ लेना अच्छे समाज का परिचायक कभी नहीं हो सकता। यह आगे चल कर ना सिर्फ रोष का कारण बनता है अपितु समाज में अविश्वास के प्रसार में भी सहायक होता हैं।


सचिन को ही देख लीजिए । क्रिकेट के भगवान हैं वो। और सिर्फ क्रिकेट ही क्यूँ? कईयों के लिए तो वो साक्षात भगवान हैं। सौम्य रूप! शांत चित्त! सरल स्वभाव! भगवान में भी तो ये गुण होते हैं! पर क्या सिर्फ यही गुण होते हैं? सचिन के क्रिकेट का समाज की भलाई से कोई मतलब नहीं। इससे लोगों के दुख-दर्द दूर  नहीं हो सकते है। सिवाय इसके कि युवा उनसे प्रेरणा ले कर इस विधा को सीख सकें। परंतु, उन्हें भगवान बना कर पेश किया जाता रहा हैं।  फिर तो भगवान की श्रेणी में मजदूरों को भी रखना चाहिए जो अपने हुनर से लोगों को रहने के लिए घर बना कर देता हैं। भगवान की श्रेणी में उन सभी लोगों को रखा जाना चाहिए जो दिन-रात एक कर अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए अपने पसीने बहाता हैं।


समाज और देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित, सजग और आत्मनिर्भर बनना होगा। अपने छोटे से छोटे स्वार्थ की  पूर्ति  के लिए दूसरों की हकमारी से बचना होगा। यही प्रवृत्ति समाज को सुदृढ बना सकती हैं। इसमें की गई जरा सी भी चूक समाज में ऐसी स्थितियाँ पैदा करेंगी जहाँ अण्णा और सचिन जैसे व्यक्ति को भगवान का दर्जा दिया जाने लगेगा और भेड़-चाल की गुंजाइश कभी ना खत्म होने वाली राह बन जाएगी।