17 जुलाई 2016

बुनकरों के एक विद्रोह की रिपोर्टिंग और समकालीन राष्ट्रवाद

यह ब्लॉग पत्रकार विल्हेम वोल्फ की एक रिपोर्टिंग का संशोधित अनुवाद है. 

यह एक ऐतिहासिक लेकिन समकालीन सन्दर्भों से जोड़ कर देखी जा सकने वली घटना है. 170 साल पुरानी यह घटना हमें हमारे यथार्थ की ओर खींचने में आज भी सक्षम है. यही इस घटना की यूएसपी है. दरअसल, यह घटना बाद में बनी. घटना के रूप में पहचाने जाने से पहले यह एक विद्रोह कहलायी. एक ऐसा विद्रोह, जिसके होने का समय लगभग वही रहा जब राजतंत्र जैसी सड़ चुकी व्यवस्था को खत्म करने से उपजे हालातों में व्यवस्था चलाने के लिये राष्ट्र नाम के कीड़े की उत्पत्ति हुई. संयोग देखिये, जिन देशों में यह कीड़ा पहले पनपा उनमें से एक को आपातकाल की अवधि बढ़ानी पड़ रही है और दूसरे 'राष्ट्र' की अर्थव्यवस्था पिछले साल पर 'राष्ट्रों' की कृपा की राह देख रही थी. 

खैर, इस विद्रोह के केंद्र में बुनकर थे. 1845 में सिलेसिया में बुनकरों ने अपनी परेशानियों से तंग आकर ठेकेदारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया था. यह विद्रोह उन ठेकेदारों तक ही सीमित रहा जो इन बुनकरों को कच्चा माल देते और बदले में निर्मिल माल लेते थे. कच्चे माल को 'निर्मित माल' बनाने के बदले जो पैसे बुनकरों को दिये जाते वो काफी कम होते थे. 

18,000 की आबादी वाले उस गाँव में सूती कपड़ा बनाने का व्यवसाय व्यापक, लेकिन श्रमिकों की हालत खस्ता थी. काम की तुलना में श्रमिकों की भीड़ ज्यादा थी. इसका अनुचित लाभ ठेकेदार उठाते थे. इन अनुचित लाभों में से एक निर्मित माल के मूल्यों को कम करते रहना था. 


Film:The weaver

4 जून की दोपहरी बुनकरों की एक बड़ी संख्या अपने घरों से निकल दो कतारों में चलते हुए ठेकेदार की कोठी तक पहुँची. उनके लबों पर ज्यादा मज़दूरी की माँगें थी. हालांकि, उनमें से बहुतेरों का मन tit for tat के सागर में गोते लगा रहा था. ठेकेदार का पल़ड़ा अभी भारी था. इसलिये बुनकरों को धमकियाँ सुनने को मिल रही थी. बीच-बीच में स्थिति की गम्भीरता को भाँपते हुए ठेकेदार सिर्फ घृणा के भावों का ही अस्त्र के रूप में प्रयोग कर लेता.  

पर, वह दिन फैसले का था. सो, बुनकरों की भीड़ में से कुछ जबरन ठेकेदार के घर में घुस गयी. पल भर में ही घर में लगे फर्नीचर और खिड़कियाँ धूल चाटने को विवश थी. बुनकरों का एक समूह भंडारघर में घुस गया और कपड़ों के स्वामित्व में अकस्मात परिवर्तन हो गया.  पर, घर का स्वामी अपने परिवार के साथ दूसरे गाँव भाग गया. बदकिस्मती, कि उसकी आप-बीती उससे पहले वहाँ पहुँच चुकी थी. इसलिये उस गाँव में उसे शरण नहीं मिला. 

हालांकि, 24 घंटों के भीतर सेना की सहायता से वह वापस अपने गाँव लौटा. इसके बाद वहाँ जो टकराव हुआ उसमें 11 बुनकरों को गोली मार दी गयी. 

इस ब्लॉग में टाइप की हुई घटना को पत्रकार विल्हेम वोल्फ़ ने कवर किया था. जरा सोचिये, आज के भारत में किसी पत्रकार ने इसी निर्भीकता के साथ इस विद्रोह की घटना को कवर किया होता तो शायद छत्तीसगढ़ में उसे नक्सली करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता, बिहार में गोली मार दी जाती, यूपी में उसे जला दिया जाता, पंजाब में उस पत्रकार की स्टोरी को झुठलाने के लिये एक चमचमाती गुणगानकारी विज्ञापन प्रसारित करवा दी जाती. प्रधानमंत्री स्टार्ट-अप से भविष्य के विजय माल्या पैदा करने में लगे होते, पूर्व सूचना-प्रसारण मंत्री रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गर्वनर पर दबाव बना रहे होते. शायद, पत्रकार को देशद्रोही करार दे दिया जाता और न्यायालय परिसर में कीड़ा-पालक उस पर लात-घूँसों की बरसात कर रहे होते. बेशक, न्यायालय कई घंटों तक आँखों पर पट्टी और मुँह में तराजू ठूँसे रहता. 

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