27 जुलाई 2014

नागरिक सेवा परीक्षा: इतिहास, चुनौतियाँ और समाधान

नागरिक सेवा परीक्षा हमारे देश की प्रतिष्ठित परीक्षाओं में से एक है जिसके माध्यम से सरकारी सेवाओं में प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस अधिकारी आदि की नियुक्ति की जाती है। यह नागरिक और विधायिका के बीच सेतु की तरह है जिसका कार्य विधायिका द्वारा बनाये गए कानूनों को अमलीजामा पहनाना या लागू करना होता है।

अवधारणा:-
              नागरिक सेवा परीक्षा की अवधारणा का जन्मदाता अँग्रेजों द्वारा नियुक्त किये भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड कॉर्नवालिस को जाता है। ''ब्रिटिश रॉयल पब्लिक सर्विस कमीशन'' के नाम से शुरू हुई इस नागरिक सेवा परीक्षा का शुरूआती उद्देश्य अपने (ईस्ट इंडिया कंपनी के) अफ़सरों के रिश्वत लेने की आदत को ख़त्म करना था। लेकिन, इसका मूल उद्देश्य भारत पर अंग्रेजी नियंत्रण को सफलतापूर्वक बनाये रखना था। स्थापना के समय इस सेवा के तहत होने वाली नियुक्तियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों द्वारा की जाती थी। यह इतिहास है कि नागरिक सेवाओं में नियुक्तियों को लेकर कंपनी के निदेशकों और अंग्रेजी मंत्रिमंडल के सदस्यों में तकरार होती रहती थी। परंतु, 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक में एक चार्टर एक्ट के द्वारा इस सेवा में प्रवेश का आधार प्रतियोगी परीक्षाओं को बनाया गया। कालक्रम में अंग्रेजों को अपनी सत्ता बनाये रखने में मदद करने के कारण इंडियन सिविल सर्विसेज को भारतीय इतिहास में  ''इस्पात का चौखटा'' कहे जाने का भी ज़िक्र है। 

दबदबा:-
          चूँकि, इसका जन्म, जन्म स्थान, जन्मदाता और जन्म का कारण सब अंग्रेजी थी इसलिए इस परीक्षा पर शुरूआत से ही अंग्रजी का दबदबा रहा। परंतु, आश्चर्यजनक यह है कि भारत में आजादी के बाद के प्रारंभिक सालों में भी इस परीक्षा में हिंदी और तमाम अन्य भारतीय भाषाओं को पर्याप्त और उचित स्थान नहीं दिया गया। सबसे पहले इस दबदबे को चुनौती कोठारी आयोग की अनुशंसा से मिली जो उस समय आई जब एक गैर-कांग्रेसी सरकार केंद्र में सत्तासीन हुई। ठीक 35 साल बाद आज फिर इस परीक्षा में अंग्रेजी के दबदबे को चुनौती मिल रही है, और केंद्र में बहुमत के साथ भाजपा सरकार है।

समस्या के तात्कालिक कारण:-
            हाल में अंग्रेजी को मिल रही चुनौती के मूल में इसके तहत ली जाने वाली सीसैट परीक्षा है। सीसैट यानी ''नागरिक सेवा बोधगम्यता परीक्षा'' जिसके दूसरे प्रश्न पत्र में अंग्रेजी भाषा आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं जो अपने शुरूआत यानी वर्ष 2012 से ही हिंदी व अन्य भारतीय भाषा के विद्यार्थियों के लिए सिरदर्द बनी हुई है। इसके परिणामस्वरूप हिंदी व अन्य भाषाई पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों के उत्तीर्ण होने का ग्राफ लगातार गिरा है। इस असमानता के विरोध में कुछ दिन पहले ही मुखर्जी नगर में विद्यार्थी अनशन पर बैठ चुके हैं। इस आंदोलन को कई नेताओं, मंत्रियों और बुद्धिजीवी वर्ग का समर्थन मिला हुआ है।  

समस्या के मूल में:-
               परंतु, इस समस्या के मूल में भारत की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति है। इस विशाल देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भाषाई आधार पर भिन्न है। समान भाषा ना होने के कारण राष्ट्रीय नीति में गड़बड़ होना एक कोण तक जायज़ है परंतु, जो प्रयास आजादी के इतने वर्षों तक संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अंग्रेजी कोे स्थापित करने के लिया किया गया अगर वही प्रयास हिंदी को लेकर किया जाता तो शायद ऐसी समस्या आने की गुंजाइश न्यून होती। हमारे देश में अलग-अलग विचारधारा के लोगों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों का सिस्टम मसलन पाठ्यक्रम, व्यवहार आदि बहुत भिन्न हैं। यह भी कि हमारे देश में निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों की पढाई में जमीन-आसमान का अंतर है। इसकी परिणति हमें आज इस रूप में देखने को मिल रही है। 

समाधान:-
             सरकार ने सीसैट से जुड़ी समस्याओं के अध्ययन के लिए एक तीन सदस्यीय समिति नियुक्त की है जिसे एक सप्ताह में अपना जवाब सरकार को सौंपना है। सरकार फौरी उपाय के तौर पर सीसैट के आपत्ति वाले हिस्से को समाप्त कर सकती है। परंतु, यह केवल लक्षण का इलाज ही होगा। इसका संपूर्ण समाधान तभी सम्भव है जब सरकार पूरे देश में एक समान शिक्षा पद्धति लागू करे। जिसके तहत भारत का हर बच्चा चाहे वो नेता, अधिकारी या माली का हो समाम शिक्षा सम्मानपूर्वक प्राप्त कर सके।
                                                                                                  सरकार के लिए यह चुनौती से ज्यादा  बड़ा अवसर है। सरकार के पास बहुमत है और इन सुधारों को अमलीजामा पहना सकती है। समय आ गया है जब सरकार इस दर्द का समूल नाश करे। फौरी उपचार क्षणिक राहत तो देती है परंतु दर्द के फिर से ना उखड़ने की गारंटी नहीं।
            
              

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें