20 अक्तूबर 2022

पटुआ: जलावन, त्योहार से लेकर ठंड दूर भगाने में होता है इस्तेमाल

नोविनार मुकेश। पूर्णिया। रेशेदार पौधे वाली पटुआ को पटसन, पाट के नाम से भी जाना जाता है। यह द्विबीजपत्री पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम कॉर्कोरस ओलिटोरिअस और कॉर्कोरस कैप्सुलारिस है। शरद पूर्णिमा आते-आते पटुआ की फसल अंतिम रूप से तैयार हो जाती है। बिहार के सीमांचल के जिलों पूर्णिया, कटिहार, अररिया और कोशी क्षेत्र में मधेपुरा के मुरलीगंज की सीमा तक पटुआ की फसल बोयी जाती है। 

वीडियो लिंक: https://bit.ly/3SfX7cE

इसकी खेती किसानों की पूरी तन्मयता मांगती है। पटुआ का पौधा तीन से आठ इंच बड़ा होने पर गोड़ाई और बाद में दो से तीन निराई की जाती है। फसल को फूल झड़ने और फली निकलने के बाद काट लिया जाता है।

पटुआ का सूखा तना

काटने में देरी होने पर रेशे मोटे और उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। कटाई के बाद फसल को करीब 18 दिनों तक पानी में छोड़ दिया जाता है। रेशे और तने को अलग-अलग कड़ी धूप में सुखाया जाता है।


सड़क किनारे सूखती फसल


रेशे का इस्तेमाल बोरियाँ, कम्बल बनाने में किया जाती है। वहीं, तने का इस्तेमाल हिन्दू समाज में दीपावली के दौरान हुक्का-पाती खेलने के लिए होता है। सूखे तने को जलावन के लिए भी रखा जाता है। ग्रामीण ऑफ सीजन में मिट्टी के चूल्हों के ईंधन के रूप में पटुआ के सूखे तने का इस्तेमाल करते हैं। 


सड़क के दोनों ओर सूखता पटसन का तना

इस साल सीमांचल के जिलों में पटुआ की खेती संतोषजनक हुई है। सैफगंज के किसान कैलू दास ने बताया कि बाज़ार में पटुआ की कीमत 5000 रूपए प्रति क्विंटल है।



जोकीहाट से रानीगंज और मधेपुरा के मुरलीगंज तक जगह-जगह दुकानों के आगे बड़ी-बड़ी तराजू टंगे दुकानें दिख जाती हैं जहाँ पैकार छोटे-छोटे किसानों से 50 रूपए प्रति किलो के भाव से पटुआ की फसल खरीद लेते हैं। इन फसलों को फारबिसगंज और पूर्णिया के गुलाबबाग मंडी में भेज दिया जाता है। 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें