30 दिसंबर 2019

जेरोक्स की दुकानों से डिजिटल होता इंडिया

इंडिया को डिजिटल होने के लिए क्या चाहिए? डिजिटल इंडिया कैसा दिखेगा? इस सवाल का कोई सटीक जवाब हो सकता है क्या?क्या डिजिटल इंडिया का नारा अन्य सियासी नारों से अलग है?शायद ही, इन सवालों का जवाब आला अफसरों और हुक्मरानों के पास हो! इन सवालों का जवाब खोजने के क्रम में जिम्मेेदार अधिकारियों और सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों की पेशानियों पर बल पड़ा हो, यह अविश्वसनीय लगता है। 

01 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किये डिजिटल इंडिया अभियान को भारत सरकार की महत्तवाकांक्षी योजनाओं में शुमार किया गया जिसका उद्देश्य सरकारी योजनाओं का लाभ नागरिकों तक इलैक्ट्रॉनिकली पहुँचाना था। इसके लिए ऑनलाइन आधारभूत संरचनाओं में सुधार, इंटरनेट कनैक्टिविटी को प्रोत्साहन, ग्रामीण भारत को उच्च और तीव्र गति वाले इंटरनेट नेटवर्क से जोड़कर भारत को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में डिजिटली सशक्त बनाना था। 

वास्तव में यह पूर्ववर्ती सरकार की योजनाओं की पॉलिशिंग थी। इस अभियान के अंतर्गत धरातल पर सामान्य नागरिकों के लिए इन उद्देश्यों की क्रियान्वयन-प्रक्रियाओं और पद्धतियों पर युक्तियुक्त विचार नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि फायदा केवल उन वर्गों को मिला जिनके पास इंटरनेट युक्त उपकरण जैसे एंड्रॉयड फोन आदि उपलब्ध थे। इस अभियान का असल और सबसे बड़ा फायदा गली-मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह खुले फोटोकॉपी करने वाली, फोटो बनाने वाली दुकानों/साइबर कैफे को मिला। बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों के दस्तावेज़ फोटोकॉपी की इन दुकानों पर पहुँचने लगे। सरकारी स्कूलों के आंकड़े आसानी से इन दुकानों पर पहुँचने लगे। सामान्य नागरिक जाति, निवासी, आधार, पैन कॉर्ड, राशन कॉर्ड, ईडब्ल्यूएस(EWS) और न जाने कौन-कौन से कार्ड बनाने के लिए इन दुकानों के आगे खड़े होते रहे। स्कूलों के विद्यार्थी ई-मेल अकाउंट बनाने के लिए इन दुकानों पर आते रहे। 

फोटोकॉपी की जिन दुकानों पर कभी गिने-चुने लोग होते, वो ग्राहकों की भीड़ से खचाखच भरी रहने लगी। ई-मेल अकाउंट बनाने के 10-15 रूपए, प्रिंटआउट के 10-20 रूपए, किसी तरह के फॉर्म भरने के 20-100 रूपए तक लिए जाने लगे। शहरी इलाकों में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने के कारण दरों में थोड़ी बहुत नरमी आई। बुरा हाल ग्रामीण इलाकों का हुआ जहाँ एक ब्लैक एंड व्हाइट प्रिंटआउट भी 15 से 20 रूपए में मिल रहा था। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।

हालांकि, फायदे का बड़ा अंश पहले से अपने आप को स्थापित कर चुके बड़े दुकानदारों के ही हिस्से आया। इन दुकानों की स्थिति यह है कि यहाँ पर काम कर रहे लड़के सामान्य रूप से कम उम्र के ही मिलेंगे। उनमें भी अधिकतर वो हैं जिनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। इन लड़कों में से अधिकतर स्कूल या कॉलेजों में नामांकित हैं। इन दुकानों में से अधिकांश पर श्रम और श्रमिक सम्बन्धी कानून लागू नहीं होते। भले ही ये नियम काम के घंटों को लेकर हो या पारिश्रमिक सम्बन्धी। अमूमन 9-12 घंटों के काम के बदले इन्हें 1000 से 5000 भारतीय रूपए मिल जाते हैं। उससे पहले काम सीखने के नाम पर इन्हें कई जगह कुछ महीने फ्री में अपनी सेवाएँ देनी होती है। 

इन सेवाओं की प्राप्ति के लिए वसुधा केन्द्रों पर भी कम भीड़ नहीं होती। जिन लोगों के नाम वसुधा केन्द्रों का पंजीकरण होता है, वो भी कमाई में पीछे नहीं रहना चाहते और आधार पंजीकरण से लेकर उसे अद्दतित करने, अन्य प्रमाण-पत्रों के आवेदन के लिए निर्धारित सरकारी दरों से अधिक की राशि खुलेेआम वसूलते हैं। इसका विरोध करने वालों के काम को लटकाया जाता है। सचमुच, गुलजार होते जेरोक्स की दुकानों से इंडिया डिजिटल हो रहा है। #DigitalIndia #डिजिटलइंडिया #EWS #AadhaarRegistration #VasudhaKendra #वसुधा_केन्द्र #InternetConnectivity








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