19 मार्च 2018

विश्व उपभोक्ता दिवस और परम्परागत भारतीय बाजार

क्या हम इक्कीसवीं सदी में एक ऐसे बाज़ार की कल्पना कर सकते हैं जो अंग्रेजी के शब्द फेयर(FAIR) के समानांतर खड़ी होकर उसका पर्याय बन जाये? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब ज्यादा कठिन नहीं हैै। इस सवाल का जवाब क्या होना चाहिए? बिना हिचक के "ना" या तकरीबन के बिल्कुल पास खड़ी "हाँ"। 

जवाब खोजने के लिए एक बार अपने आस-पास के बाजारों को ही देख लीजिए। उदाहरण के लिए, जिले के राशन, किताबों, दवाईयों, मिष्ठान्नों, कॉस्मेटिक की दुकानों पर अब भी उपभोक्ताओं को खरीदे गये सामानों का बिल नहीं मिलता। पक्की रसीद के बदले उपभोक्ताओं को छोटी-सी कागज की टुकड़ी पकड़ा दी जाती है। बिना रसीद-मुहर की इस काग़जी टुकड़ी पर महज उपभोक्ता को बेचे गये सामानों की सूची और उसकी कीमत होती है। रसीद माँगने पर कई दुकानदार पक्की रसीद पर टैक्स लगने से होने वाले नुकसान का रोना रोने लगते हैं। 

दवाईयों की दुकानों का अपना-अपना डॉक्टर होता है। जैसे- आपको किसी डॉक्टर के यहाँ उपचार कराना है तो उसका कोई एजेंट अक्सर दुकानदार के रूप में सेट रहता है। अब वह दुकानदार एक पर्ची पर आपका नाम-पता और उम्र लिखता है और कन्सल्टेसन फीस की माँग करता है। 300 रूपए की फीस के लिए 500 रूपए का नोट पकड़ाने पर वह एक रजिस्टर में मरीज या उसके परिजन का नाम लिखता है और फीस के कॉलम में 200 रूपया उधार रख देता है। इस उधार का उद्देश्य उपभोक्ताओं को उसी दुकान से दवाई खरीदने के लिए विवश करना है। इस तरह एक मानसिक जाल बुना जाता है जिसमें अक्सर और अधिकांश मरीज या उसके परिजन फँस ही जाते हैं। 

उपभोक्ताओं को नल, पाइप, मच्छर मारने का रैकेट इत्यादि जैसे अनगिनत सामानों पर दुकानदार की इच्छानुसार बिल नहीं मिलता। जब परम्परागत बाजारें ही अभी फेयर नहीं हो पाई है तो इस वर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाने के लिए निर्धारित किया गया थीम "मेकिंग डिजिटल मार्केट फेयरर" कितना तर्कसंगत है?
#world_consumer_rights_day #15th_march #digital_market 

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