29 जून 2015

विकास होगा मगर किसका?



नेता को समर्थक चाहिये, पत्रकार को ख़बर. वकील को केस चाहिये, प्रोडक्ट को बाज़ार. अस्पताल को बीमार चाहिये, फैक्ट्री को बेरोजगार. टीवी को दर्शक चाहिये, रेडियो को श्रोता, अख़बार को पाठक. रेस्त्रां को ग्राहक चाहिये. गाड़ियों को सड़क चाहिये. पुलिस को चोर चाहिये. हथियार बनाने वालों को युद्ध चाहिये. धर्मगुरूओं को भक्त चाहिये. पैदल चलने वालों को साइकिल, साइकिल वालों को मोटरसाइकिल, मोटरसाइकिल वालों को कार चाहिये. रोटी के लिये आटा चाहिये, भात के लिये चावल. सब्जी खरीदने औ बेचने के लिये पैसे चाहिये. 





धोबी को कपड़े चाहिये. नाई को बाल. रहने के लिये छत चाहिये. झोपड़ी वालों को मकान, मकान वालों को बंग्लो. खाली कमरे वालों को किरायेदार चाहिये. किरायेदारों को मकान. मन बहलाने के लिये सिनेमा चाहिये, सिनेमा को स्क्रीन. ठंडे पानी के लिये फ्रिज़ चाहिये. गरमा खाने के लिये ओवन. कंठ की गरमी शांत करने के लिये कोल्ड ड्रिंक चाहिये. मन की गरमी शांत करने के लिये व्हिस्की चाहिये. आस्था के लिये अगरबत्ती चाहिये, चीखने के लिये लाउडस्पीकर.  


लिखी किताब के लिये प्रकाशक चाहिये, प्रकाशन के लिये लिखी किताब. कलम को इंक चाहिये. की बोर्ड को अँगुलियाँ. आदमी को फोन चाहिये फोन को नेटवर्क. सिग्नल के लिये टॉवर चाहिये. टॉवर के लिये जमीन. जमीने के लिये पैसे चाहिये और पैसे के लिये जमीन. बैंको को पैसे चाहिये और सरकारों को बैंक. जनता को सरकार चाहिये और सरकारों को जनता.



जनता जितनी बड़ी है जरूरतें उससे कई गुना बड़ी. एक का खर्च दूसरे की आय है. बचत, निवेश वृद्धि के पट खोलती है जिसे विकास कह कर जनता की सरकारें बनती-बढ़ती है. फिर पैसा पहले की तरह चलते रहता है सरकार से मंत्री, मंत्री से नेता, नेता से ठेकेदार और ऐसे ही किसी से किसी के पास. विकास होते रहता है. खेल सारा जनता और सरकारों के बीच पैसों का है. पैसा माइनस कर दीजिये जनता सरकार हो जायेगी और सरकार जनता.

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