23 जून 2015

कितना आसान होता होगा खुद को आग लगाना!


आख़िर क्यों कोई ज़िंदा जलना स्वीकार कर लेता है? जिन्हें गंध तक पसंद न हो वो कैसे अपने पूरे शरीर पर केरोसिन उड़ेल तीलियों से आग जलाने तक की प्रतीक्षा कर लेते हैं? कोई कैसे अपने मन को तैयार कर लेता है कि उसके हाड़-माँस आग में जलती रहे!  इसका जवाब हम नहीं जानते हैं, ऐसा नहीं है. मुझे, आपको, हम सबको इसका जवाब पता है, लेकिन विलासिता की ओर अंधाधुंध भागती अपनी ज़िंदगी के दो-पाँच मिनट दे हम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर निकल जाते हैं.


हमारी अपनी समस्यायें हमारे अप्रोच पर निर्भर करती है. जिसका अप्रोच जितना बड़ा उसकी समस्यायें उतनी छोटी. ट्रेन में वेटिंग टिकट मिले तो क्या फ़र्क पड़ता है कंफर्म तो करा ही लिया जायेगा! एडमिशन के लिये सींटें कम है तो क्या फ़र्क पड़ता है फलाँ कोटे से करा लिया जायेगा. कोटा नहीं है तो कॉपी चेकर से रिलेशनशिप या अप्रोच साध लिया जायेगा. 





इस महिला ने खुद को आग लगा ली. विवाद ज़मीनी था. इस विवाद को गाँव-समाज के लोग मिल बैठकर दूर कर सकते थे. काले कोर्ट पहनने वालों से ज़मीन के बारे में जानकारी निश्चित रूप से उसके टोले, मोहल्लों, वार्ड में रहने वाले लोगों को ज्यादा होगी. जब समाज ने उसके विवाद से पल्ला झाड़ लिया होगा तो उसने कोर्ट का रास्ता चुना होगा. 



उस विधवा महिला को यह नहीं पता था कि काले कोर्ट वालों के पास जाकर जिस एक बात की गारंटी होती है वह समय और पैसे की बर्बादी का है. समय पर न्याय मिलना अब बिना अप्रोच वाले लोगों के लिए सपना है. सो वही हुआ. काले कोर्ट वालों से उसे अब तक न्याय नहीं मिला तो उसने खुद को आग लगा ली. 


अभागन विधवा! किस्मत को उसका मरना भी मंजूर नहीं था. सो बच गयी और अब उसके खिलाफ़ ख़ुदकुशी का एक मामला भी दर्ज कर लिया गया. इतना तत्पर कानून. अहो! हमारा क्या है! दो मिनट की संवेदना जागेगी और फिर आँखों के सामने कोई नयी ख़बर होगी. कुछ भी...क्रिकेट, पॉलिटिक्स...मोदी!

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